History of Yoga । योग का इतिहास ?
History of Yoga-योग का इतिहास ? हमारे शास्त्रों के द्वारा ऐसा माना जाता है कि जब से सभ्यता शुरू हुई है, तभी से योग किया जा रहा है, योग के विज्ञान की उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी, पहले धर्मों या आस्था के जन्म लेने से काफी पहले हुई थी, योग विद्या में शिव को पहले योगी या आदि योगी तथा पहले गुरू या आदि गुरू के रूप में माना जाता है।
पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में एवं इसके बाद पतंजलि काल तक योग की मौजूदगी के ऐतिहासिक साक्ष्य देखे गए। मुख्य स्रोत, जिनसे हम इस अवधि के दौरान योग की प्रथाओं तथा संबंधित साहित्य के बारे में सूचना प्राप्त करते हैं, वेदों (4), उपनिषदों (18), स्मृतियों, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पाणिनी, महाकाव्यों (2) के उपदेशों, पुराणों (18) आदि में उपलब्ध हैं।
योग शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के मिलने से हुई है। ये दो शब्द संस्कृत के 'युज' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है, जोड़ना। अर्थात किसी भी वस्तु से अपने को जोड़ना या किसी कार्य में स्वयं को लगाना।
योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि के अनुसार योग की परिभाषा -
'योगश्चितवृत्तिनिरोधः।'
अर्थात चित्त के वृतियों का सर्वथा आभाव ही योग है। चित्त का तातपर्य यहाँ अंतःकरण से है।
ज्ञानेन्द्रिय द्वारा जब विषयों को ग्रहण किया जाता है। चित्त हमारा दर्पण के जैसा होता है, अतः
विषय उसमें आकर प्रतिविम्ब होता है। अर्थात चित्त विषयाकार हो जाता है, इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।
इसे भी पढ़ें : कब्ज की सरल चिकित्सा।
महर्षि वेदव्यास के अनुसार -
'योग समाधिः।'
अर्थात योग नाम समाधी का है।जिसका भाव यह है कि समाधि द्वारा जीवात्मा उस सत-चित्त -आनद स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करे और यही योग है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचर्य के अनुसार -
"ध्यान योगेन समयश्यदगतिस्यान्तरामनः।"
अर्थात ध्यान योग से भी योग आत्मा को जाना जा सकता है। अतः योग परायण ध्यान होना चाहिए।
श्रीमद भगवद गीता के अनुसार -
"बुद्धि युक्तो जहाँ तिह्म उभय सुकृत दुष्कृते ।
तस्याद्योगाय युज्जस्व योगः कर्मसु कौशलम ।।"
इसे भी पढ़ें : प्रज्ञा योग क्यों और कैसे ?
अर्थात कर्मों में कुशलता का नाम ही योग है।कर्मों में कुशलता का तातपर्य है कि हम इस प्रकार कर्म करे कि बंधन का कारण न बनें।
अनासक्त भाव से अपने कर्मों के करें।
योग का उद्देश्य जीवन का समग्र विकास करना है। समग्र विकास का मतलब शारीरिक, मनसिक, नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक विकास भी हो।
योग रूपी अग्नि में अपने शरीर को तपा लेने से व्यक्ति अंदर के न कोई रोग होता है और न ही जल्दी बुढ़ापे का लक्षण दिखाई पड़ता है।
No comments:
Post a Comment